आरती >> श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड) श्रीरामचरितमानस अर्थात तुलसी रामायण (अयोध्याकाण्ड)गोस्वामी तुलसीदास
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भारत की सर्वाधिक प्रचलित रामायण। द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड
दो०- भूप मनोरथ सुभग बनु, सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति, बचनु भयंकरु बाजु॥२८॥
भिल्लिनि जिमि छाड़न चहति, बचनु भयंकरु बाजु॥२८॥
राजाका मनोरथ सुन्दर वन है, सुख सुन्दर पक्षियोंका समुदाय है।
उसपर भीलनीकी तरह कैकेयी अपना वचनरूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥२८॥
मासपारायण, तेरहवाँ विश्राम।
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का।
देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी।
पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
देहु एक बर भरतहि टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी।
पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी॥
[वह बोली-] हे प्राणप्यारे! सुनिये, मेरे मन को
भाने वाला एक वर तो दीजिये, भरतको राजतिलक; और हे नाथ! दूसरा वर भी मैं हाथ
जोड़कर माँगती हूँ, मेरा मनोरथ पूरा कीजिये--॥१॥
तापस बेष बिसेषि उदासी।
चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू।
ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
चौदह बरिस रामु बनबासी॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू।
ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू॥
तपस्वियोंके वेषमें विशेष उदासीन भावसे (राज्य और कुटुम्ब आदि
की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियोंकी भाँति) राम चौदह वर्षतक वन
में निवास करें। कैकेयी के कोमल (विनययुक्त) वचन सुनकर राजाके हृदयमें ऐसा
शोक हुआ जैसे चन्द्रमाकी किरणोंके स्पर्शसे चकवा विकल हो जाता है॥२॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा।
जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू।
दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू।
दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू॥
राजा सहम गये, उनसे कुछ कहते न बना, मानो बाज वनमें बटेरपर झपटा
हो। राजाका रंग बिलकुल उड़ गया, मानो ताड़के पेड़को बिजलीने मारा हो (जैसे
ताड़के पेड़पर बिजली गिरनेसे वह झुलसकर बदरंगा हो जाता है, वही हाल राजाका
हुआ)॥३॥
माथें हाथ मूदि दोउ लोचन।
तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला।
फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला।
फरत करिनि जिमि हतेउ समूला॥
माथेपर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे,
मानो साक्षात् सोच ही शरीर धारणकर सोच कर रहा हो। [वे सोचते हैं--हाय!] मेरा
मनोरथरूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयीने हथिनीकी तरह उसे
जड़समेत उखाड़कर नष्ट कर डाला॥ ४॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं।
दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं।
दीन्हिसि अचल बिपति कै नेईं।
कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल (सुदृढ़) नींव डाल दी॥५॥
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- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 1
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 2
- अयोध्याकाण्ड - मंगलाचरण 3
- अयोध्याकाण्ड - तुलसी विनय
- अयोध्याकाण्ड - अयोध्या में मंगल उत्सव
- अयोध्याकाण्ड - महाराज दशरथ के मन में राम के राज्याभिषेक का विचार
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक की घोषणा
- अयोध्याकाण्ड - राज्याभिषेक के कार्य का शुभारम्भ
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ द्वारा राम के राज्याभिषेक की तैयारी
- अयोध्याकाण्ड - वशिष्ठ का राम को निर्देश
- अयोध्याकाण्ड - देवताओं की सरस्वती से प्रार्थना
- अयोध्याकाण्ड - सरस्वती का क्षोभ
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का माध्यम बनना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा कैकेयी संवाद
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को झिड़कना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को वर
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मंथरा को समझाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी के मन में संदेह उपजना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की आशंका बढ़ना
- अयोध्याकाण्ड - मंथरा का विष बोना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का मन पलटना
- अयोध्याकाण्ड - कौशल्या पर दोष
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी पर स्वामिभक्ति दिखाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का निश्चय दृढृ करवाना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी की ईर्ष्या
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का कैकेयी को आश्वासन
- अयोध्याकाण्ड - दशरथ का वचन दोहराना
- अयोध्याकाण्ड - कैकेयी का दोनों वर माँगना
अनुक्रम
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